Samvasran - समवशरण


समवशरण 


तीर्थकर भगवान् की उपदेश सभा को समवशरण कहत हैं । इसमें प्रत्येक प्राणी को समानतापूर्वक शरण मिलती है इसलिए समवशरण यह इसकी सार्थक संज्ञा है । जहाँ बैठ कर तिर्यंच , मनुष्य और देव भगवान की अमत । वाणी से कर्ण तृप्त करते हैं । उस सभा को समवशरण कहते हैं । 


समवशरण की संरचना - तीर्थंकर के केवलज्ञान होने के तुरन्त बाद , सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के निर्देशन में अनेक देवगण समवशरण की रचना करते हैं । यह पृथ्वी से पाँच हजार धनुष की ऊँचाई पर वृत्ताकार रूप में होता है । इसकी चारों दिशाओं में 20 - 20 हजार सीढ़ियाँ होती हैं । प्रत्येक दिशा में सीढ़ियों से लगी एक - एक वीथि / सड़क बनी होती है , जो समवशरण के केन्द्र में स्थित गन्धकुटी के प्रथमपीठ तक जाती है । समवशरण में अत्यन्त आकर्षक और अनुपम शोभा सहित चैत्यप्रासाद भूमि , जलखातिका भूमि , लतावनभूमि , उपवनभूमि , ध्वजभूमि , कल्पवृक्षभूमि , भवनभूमि , श्रीमण्डपभूमि , प्रथमपीठ , द्वितीयपीठ , तृतीयपीठ भूमि इस प्रकार कुल ग्यारह भूमियाँ होती हैं । 


द्वादशसभा - श्रीमण्डप भूमि में स्फटिक मणिमय दीवारों से विभाजित बारह कोठे होते हैं । जिनमें 12 सभायें होती हैं । पूर्व दिशा को आदि करके बारह सभाओं में क्रमश : गणधरमुनि , कल्पवासिनी देवी , आर्यिका और श्राविका , ज्योतिषी देवी , व्यन्तरदेवी , भवनवासिनी देवी , भवनवासी देव , व्यन्तर देव , ज्योतिष देव , कल्पवासी देव , चक्रवर्ती आदि मनुष्य तथा सिंहादि तिर्यञ्च प्राणी अपने जन्मजात बैर आदि को छोड़कर उपशान्त भाव से बैठकर भगवान् के उपदेशामृत का लाभ लेते हैं । 


मानस्तम्भ - समवशरण की आठवीं भूमि के प्रवेश द्वार पर चारों दिशाओं में एक - एक मानस्तम्भ होता है . जिसके देखने मात्र से मानयुक्त मिथ्यादृष्टि जीव का अभिमान गलित हो जाता है । अत्यन्त भावुक और श्रद्धाल व्यक्ति ही अष्टम भूमि में प्रवेश कर साक्षात् भगवान् के दर्शनों से तथा उनकी अमृतवाणी से नेत्र , कर्ण व जीवन सफल करते हैं । 


दिव्यध्वनि - समवशरण में भगवान् की दिव्यध्वनि चौबीस घण्टे में चार बार , छह - छह घडी सबह , दोपहर । शाम तथा अर्द्धरात्रि में खिरती है । किसी विशिष्ट पुण्यात्मा जीव के पुण्य से असमय में भी खिरती हैं । 


समवशरण का माहात्म्य - समवशरण में जिनेन्द्र देव के माहात्म्य से आतंक , रोग , मरण , उत्पत्ति , वैर . काम , बाधा एवं क्षुधा - तृषा आदि की पीड़ायें कदापि नहीं होती । साथ ही श्रीमण्डप भूमि के थोड़े से ही क्षेत्र में असंख्यात जीव एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हुए सुखपूर्वक विराजते हैं । योजनों विस्तार वाले इस समवशरण में प्रवेश और निकलने में बाल - वृद्ध सभी को अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय नहीं लगता है । 


अभ्यास प्रश्न 
1 . समवशरण किसे कहते हैं ? 
2 . समवशरण की रचना किस प्रकार से होती है ? । 
3 . समवशरण में कितनी भूमियाँ होती हैं ? 
4 . समवशरण की बारह सभाओं में कौन कहाँ बैठता है ? 
5 . मानस्तम्भ की अपनी क्या विशेषता होती है ? 



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