Sharavakeshast karm - श्रावक के षट् आवश्यक कर्म

श्रावक के षट् आवश्यक कर्म 
प्रत्येक मानव सुख शान्ति चाहता है और सुख शान्ति धर्म कार्य से प्राप्त होती है । अत : धर्म कार्य करना प्रत्येक व्यक्ति के लिये परमावश्यक है । हमें मनुष्य जन्म का प्राप्ति महान् पुण्योदय से हुई है . इसमें भी आर्यन उत्तम कल निरोगी काया . सत्पुरुषों की संगति आदि उत्तमानामत्त मिलन पर भा जो दान पजादि पर आवक कार्यों को नहीं करता है , उसे आचाया न पशु क समान माना है । इसलिए प्रत्येक श्रावक की घट आवश्यक कार्यो को परमावश्यक समझकर प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए , जिससे इस भव में और पर भव में सख शान्ति की प्राप्ति हो ।
षट् आवश्यक के नाम इस प्रकार हैं :
देवपूजा गुरुपास्तिः , स्वाध्यायःसंयमस्तपः । 
दानं चेति गृहस्थानां , षट्कर्माणि दिने - दिने । 
देवपूजा , गुरु - उपासना , स्वाध्याय , संयम , तप और दान ये घट आवश्यक कर्म प्रत्येक गृहस्थ को नित्य करना चाहिए
देवपूजा 
मन - वचन - काय से भगवान् जिनेन्द्र के गुणों का विशेष रूप से चिन्तन - मनन करना देवपूजा कहलाती है । इसके लिये सर्वप्रथम छने हुये प्रासुक जल से स्नान कर , शुद्ध धुले हुये धोती - दुपट्टा पहनना चाहिए , श्री जी के अभिषेक व सामग्री धोने के लिये जल कुंए का ही काम में लेना चाहिए ।
सर्वप्रथम जिनेन्द्र देव का अभिषेक करके अष्टद्रव्य का थाल सजाकर , विनय पूर्वक , सर्वप्रथम णमोकार मंत्र , स्वस्ति मंगल पाठ बोलकर अपनी इच्छा से देव - शास्त्र - गुरु आदि की पूजन , आह्वान - स्थापना - सन्निधिकरण करते हुये क्रमशः जलादि अष्ट द्रव्यों के छन्द पढ़कर द्रव्य चढाते जाना चाहिए तत्पश्चात शेष अर्घ चढाने के बाद शान्तिपाठ व विसर्जन करना चाहिए इसके बिना पूजा अधूरी रहती है ।
गुरु उपासना 
समस्त परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ दिगम्बर मनि तथा ऐलक , क्षुल्लक , आर्यिकादि व्रती - त्यागियों का विनय के साथ उपदेश सुनना , उनकी सेवा सुश्रुषा करना , उनकी आवश्यकता के अनुसार उनको पीछी , कमण्डलु , शास्त्रादि उपकरण देना , विधि पूर्वक यथायोग्य नवधाभक्ति से शुद्ध आहार कराना आदि गुरु - उपासना कहलाती है ।
 स्वाध्याय 
श्री जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुये और गणधरों द्वारा निरूपित तथा आचार्यों द्वारा लिखे गये ग्रन्थों का पढ़ना - पढ़ाना , सुनना - सुनाना , पूछना - वताना , चिन्तन - मनन करना , चर्चा करना स्वाध्याय कहलाता है ।
संयम 
अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना संयम कहलाता है । संयम दो प्रकार का होता है - इन्द्रिय संयम , प्राणी संयमा पाँचों इन्द्रियों और मन को वश में करना इन्द्रिय संयम कहलाता है । दयाभाव से पट्काय के जीवों का घात नहीं करना प्राणी संयम कहलाता है । 
तप 
अपनी इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है । छह अन्तरंग और छह बहिरंग की अपेक्षा तप के बारह भेद होते हैं । इनको अपनी शक्ति अनुसार नित्य करना चाहिए
दान
 मुनि , आर्यिका , श्रावक और श्राविका को निज और पर के कल्याण के लिये , चार प्रकार के दान में अपने धन का त्याग दान कहलाता है । दीन दुखियों की भी आवश्यकतानुसार सहायता करना करुणा दान कहलाता है ।
 दान के चार भेद हैं - 1 . आहार 2 . ज्ञान 3 . औषधि 4 . अभय
अभ्यास प्रश्न 
1 . श्रावक के षट् आवश्यकों के नाम बताइए ।
2 . देवपूजा किसे कहते हैं ? देवपूजा करने की विधि बताइए ।
3 . स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
4 . दान किसे कहते हैं ? कितने प्रकार का होता हैं ?
5 . इन्द्रिय संयम किसे कहते हैं ?
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