कविश्री वृन्दावन दास
(शैर की लय में तथा और रागिनियों में भी बनती है।)
श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दु:खहरन तुम्हारा बाना है |
मत मेरी बार अबार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है || टेक ||
त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुमसों कछु बात न छाना है |
मेरे उर आरत जो वरते, निहचे सब सो तुम जाना है |
अवलोक विथा तुम मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है |
हो राजिव-लोचन सोच-विमोचन, मैं तुमसों हित ठाना है ||१||
सब ग्रंथन में निरग्रंथनि ने, निरधार यही गणधार कही |
जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक-ज्ञान-मही ||
यह बात हमारे कान परी, तब आन तुम्हारी-शरन गही |
क्यों मेरी बार विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही ||२||
काहू को भोग-मनोग करो, काहू को स्वर्ग-विमाना है |
काहू को नाग-नरेशपती, काहू को ऋद्धि-निधाना है |
अब मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है |
इन्साफ करो मत देर करो, सुखवृंद भरो भगवाना है ||३||
खल-कर्म मुझे हैरान किया, तब तुम को आन पुकारा है |
तुम ही समरथ न न्याय करो, तब बंदे का क्या चारा है |
खलघालक पालक-बालक का, नृप नीति यही जगसारा है |
तुम नीति-निपुण त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है ||४||
जबसे तुमसे पहिचान भर्इ, तबसे तुमही को माना है |
तुमरे ही शासन का स्वामी, हमको सच्चा सरधाना है |
जिनको तुमरी शरनागत है, तिन सों जमराज डराना है |
यह सुजस तुम्हारे साँचे का, सब गावत वेद-पुराना है ||५||
जिसने तुमसे दिल-दर्द कहा, तिसका तुमने दु:ख हाना है |
अघ छोटा-मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है |
पावक सों शीतल-नीर किया, औ’ चीर बढ़ा असमाना है |
भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर-समाना है ||६||
चिंतामणि-पारस-कल्पतरु, सुखदायक ये सरधाना है |
तव दासन के सब दास यही, हमरे मन में ठहराना है |
तुव भक्तन को सुर-इन्द्र-पदी, फिर चक्रपती पद पाना है |
क्या बात कहूँ विस्तार बड़ी, वे पावें मुक्ति-ठिकाना है ||७||
गति-चार चुरासी-लाख-विषे, चिन्मूरत मेरा भटका है |
हे दीनबंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है |
जब जोग मिला शिवसाधन का, तब विघन कर्म ने हटका है |
तुम विघन हमारे दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है ||८||
गज-ग्राह-ग्रसित उद्धार किया, ज्यों अंजन-तस्कर तारा है |
ज्यों सागर गोपद-रूप किया, मैना का संकट टारा है |
ज्यों सूली तें सिंहासन औ’, बेड़ी को काट बिडारा है |
त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूँ आस तुम्हारा है ||९||
ज्यों फाटक टेकत पाँय खुला, औ’ साँप सुमन कर डारा है |
ज्यों खड्ग कुसुम का माल किया, बालक का जहर उतारा है |
ज्यों सेठ-विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मी-सुख विस्तारा है |
त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकूँ आस तुम्हारा है ||१०||
यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य-सर्वथा जाना है |
चिनमूरति आप अनंतगुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है |
तद्यपि भक्तन की पीर हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है |
यह शक्ति-अचिंत तुम्हारी का, क्या पावे पार सयाना है ||११||
दु:ख-खंडन श्री सुख-मंडन का, तुमरा प्रन परम-प्रमाना है |
वरदान दया-जस-कीरत का, तिहुँलोक धुजा फहराना है |
कमलाधरजी! कमलाकरजी! करिये कमला अमलाना है |
अव मेरि विथा अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है ||१२||
हो दीनानाथ अनाथहितू, जन दीन-अनाथ पुकारी है |
उदयागत-कर्मविपाक हलाहल, मोह-विथा विस्तारी है ||
ज्यों आप और भवि-जीवन की, तत्काल विथा निरवारी है |
त्यों ‘वृंदावन’ यह अर्ज करे, प्रभु आज हमारी बारी है ||१३||