दिगम्बर एवं श्वेताम्बर

 सम्प्रदाय : दिगम्बर एवं श्वेताम्बर


वर्तमान में जैन परम्परा में प्रमुख दो सम्प्रदाय हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर। दिगम्बर सम्प्रदाय में साधु नग्न (दिगम्बर दिशाएँ ही है अम्बर (वस्त्र) जिनके, ऐसे) रहकर ही संयम साधना करते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वस्त्र पहन कर साधना करते हैं। साधु सफेद तीर्थंकर महावीर के बाद जैनधर्म में यह दो सम्प्रदाय क्षेत्र काल की परिस्थितिवश खड़े हुये । भगवान् महावीर की शिष्य परम्परा में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुये। तब तक महावीर की परम्परा चौबीस तीर्थंकरों के दिगम्बर वेष के अनुरूप नग्न रहकर साधना करने की चल रही थी। महावीर निर्वाण के लगभग 160 वर्ष बाद उत्तर भारत में बारह वर्ष का महादुर्भिक्ष (अकाल) पड़ा । निमित्तज्ञानी आचार्य भद्रबाहु स्वामी को इसका ज्ञान पहले ही हो गया। उन्होंने इस परिस्थिति को साधना के अनुरूप न जानकर श्रमण परम्परा के असली स्वरूप को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से सभी शिष्यों को दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान करने को कहा। किन्तु आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में मुनियों का एक संघ दक्षिण नहीं गया तथा उत्तर भारत में ही रुका रहा। उत्तर भारत में विद्यमान दुर्भिक्ष के दुर्दिनों में उनकी साधना में काफी कठिनाइयाँ आने लगीं। परिस्थितिवश उन साधुओं को श्वेतवस्त्र, पात्र, रजोहरण इत्यादि धारण करने पड़े। ऐसे ही साधु संघों को श्वेताम्बर कहा जाने लगा। उधर श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत में जो श्रमण संघ तीर्थंकर महावीर की मूल परम्परा के अनुकूल नग्न रहकर आगमसम्मत साधना कर रहा था, वह दिगम्बर श्रमणसंघ अपने मूल स्वरूप को सुरक्षित रखने के कारण "दिगम्बर" कहा जाने लगा। इस प्रकार परिस्थितिवश दो सम्प्रदाय हो गये। फिर परम्परा और परिवर्तन पर कौन लगाम कसे? सभी ने अपने-अपने वेष के पक्ष में बातें कहना प्रारम्भ कर दिया। सभी स्वयं को मूल परम्परा का ही बतलाने लगे। सही और गलत का निर्णय तो स्वयं सर्वज्ञ ही जानते हैं। इन सबके बाद भी आज दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ये दोनों ही सम्प्रदाय कुछ सामान्य सैद्धान्तिक मान्यताओं के अलावा भगवान् महावीर द्वारा बताये गये अधिकांश सिद्धान्तों पर एकमत हैं। दोनों सम्प्रदायों में थोड़े-बहुत मतभेद तो हैं पर मनभेद नहीं के बराबर है। सामाजिक समरसता दोनों में ही विद्यमान है। किसी भी बड़े उत्सव या अन्य आयोजन आदि को दोनों ही सम्प्रदाय के लोग मिल-जुल कर मनाते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद प्रभेद यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय आरम्भ से ही आगम, शास्त्र, सिद्धान्त और मुनि आचार की दृष्टि से एक ही हैं, किन्तु कालान्तर में कुछ सैद्धान्तिक और वैचारिक मान्यताओं विशेषकर पूजापद्धतियों के कारण और भी पन्थ बने किंतु गहराई में देखें तो वास्तव में ये पन्थभेद भी बाह्य रूप के आधार पर हैं किंतु अन्तरंग रूप में सभी एक हैं। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में निम्नलिखित तीन प्रमुख पन्थ विद्यमान हैं

(1) तेरापन्थ  (2) बीसपन्थ  (3) तारणपन्थ

तेरापन्थ के अनुयायी पूजन-अभिषेक आदि अनुष्ठानों में सचित्त पदार्थ, जैसे- फूल, फल, दूध, दही, मिष्ठान्न इत्यादि का प्रयोग नहीं करते हैं, इसके विपरीत बीसपन्थ के अनुयायी ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं समझते। तारणपन्थ के गुरु तारणस्वामी हुये। यह कुछ ही स्थानों तक सीमित है। इस परम्परा में मूर्तिपूजा के स्थान पर मन्दिरों में शास्त्रपूजा का विधान है। श्वेताम्बर 'सम्प्रदाय और भेद-प्रभेद श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी प्रमुख तीन पन्थों में विभक्त है

(1) मूर्तिपूजक (2) स्थानकवासी (3) तेरापन्थ

मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्रायः साधु मुख पर पट्टी नहीं लगाते हैं। मन्दिरों में चन्दन, सचित्त पुष्पादि से पूजा-अभिषेक और प्रतिमाओं का शृंगार मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्रचलित है। पूरे देश के, विशेषकर माउण्ट आबू, रणकपुर, पालीताना आदि तीर्थों के इनके जैन मन्दिरों का उत्कृष्ट वास्तुकला सौन्दर्य पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। स्थानकवासी सम्प्रदाय में साधु मुख पर कपड़े की चौड़ी पट्टी लगाते हैं। यह परम्परा मन्दिर एवं मूर्तिपूजा आदि पर विश्वास नहीं रखती। इनके मात्र स्थानक होते हैं। इसी प्रकार तेरापन्थ के साधु भी मुख पर लम्बी पट्टी लगाते हैं। मन्दिर मूर्तिपूजा आदि पर ये भी विश्वास नहीं रखते, किन्तु कुछ सैद्धान्तिक मतभेदों के कारण ये स्थानकवासी से अलग है।

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