प्र .1 जल क्यों चढ़ाते हैं ?
उत्तर : जन्म जरा व मृत्यु विनाश करके इन तीनों से हमेशा मुक्त होने के लिए जल चढ़ाते हैं ।प्र . 2 जल कैसे चढ़ाना चाहिए ?
उत्तरः कलश से या छोटी चम्मच से खाली कलश या कटोरी में तीन धाराओं के साथ जल छोड़ना चाहिए ।
प्र 3.चंदन कैसे चढ़ाना चाहिए ?
उत्तरः अपने दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में चंदन लेकर चढ़ायें या फिर चंदन का घोल हो तो चंदन के कलश से चढ़ाने वाले खाली कलश में धारा छोड़े । ( संसार ताप विनाशनाय ) चंदन सारी वनस्पतियों का राजा होता शिसभी वनस्पतियों में श्रेष्ठ चंदन अर्थात् गोसीर होता है । वह उत्तम पदार्थों में भी उत्तम है जो शीतलता का प्रतीक है , दाह को शमन करने वाला है । सुगंधित अर्थात सगंधी को बिखेरने वाला है । संसार रूपी तपन को नाश करने के लिये चंदन चढ़ाया जाता है ।
प्र . 4 चंदन चढ़ाने का फल क्या है ?
उत्तरः वसुनंदी श्रावकाचार एवं सागर धर्मामृत में कहा है चंदणवेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णों । अर्थात् चंदन चढ़ाने से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है एवं सुगंधित शरीर की प्राप्ति होती है ।
प्र .5 अक्षत क्यों चढ़ाये जाते हैं ?
उत्तरः अक्षत का अर्थ है - जो क्षत न हो , टूटा न हो , वह है - अक्षत । जिसने टूटे चावलों को चढ़ाया उसने अक्षत को नहीं समझा अक्षय पद की प्राप्ति के लिये , अक्षत चढाते हैं । जिसका क्षय न हो , वह अक्षय है । ऐसे पद की प्राप्ति हेतु , अक्षत चढ़ाये जाते हैं । संसार के पद तो समय - समय पर परिवर्तित होते रहते हैं । ज्ञानी सोचता है मुझे ऐसा पद नहीं चाहिये जो छूट जाये उसे तो मोक्ष रूपी शाश्वत पद चाहिए । इसी भावना से अक्षत चढ़ाता है । प्र .6 अक्षत कैसे चढ़ाना चाहिए ?
उत्तरः अपनी दोनों मुट्ठी में अक्षत सफेद चावल लेकर एवं अंगूठे अन्दर करके धीरे - धीरे ढीली करके अक्षत चढ़ाना चाहिए ।
प्र . 7 पूजन में पुष्प क्यों चढ़ाये जाते हैं ?
उत्तर : आचार्य जिनसेन प्रतिष्ठा पाठ में केसर रंगे हुए चावलों को पुष्प संज्ञा दी है । अत : भारत में प्रत्येक जैन मन्दिर में पूजन सामग्री में केसर से रंगे चावल पुष्प के रूप में माने जाते हैं । जिसमें जीव न हो , हिंसा न हो , अहिंसा का ध्यान रखते हुये पुष्प का प्रयोग करना चाहिये । इसलिए पीले चावलों को चढ़ाते हैं यह देश - देश की परम्परा है । पुष्पों में लवंग का प्रयोग भी कर सकते हैं । फूल मोह वर्द्धक है । कामदेव को भी पुष्प प्रिय होता है । फूल को आकर्षण रूप माना है इसलिये काम रूपी वाणों को विनाश करने के लिये पुष्प चढ़ाया जाता है ।
प्र . 8 पुष्प कैसे चढ़ाना चाहिए ?
उत्तरः अपने दोनों हाथों से पुष्प भरकर चढ़ाने वाली थाली में पुष्प वृष्टि वर्षा के रूप में चढ़ाना चाहिए ।
प्र . 9 पूजन में नैवेद्य क्यों चढ़ाते हैं ?
उत्तरः नैवेद्य का अर्थ है - व्यंजन , पकवान जो शुद्ध घी से बनाये जाते हैं । पूजक कल्पना करके नैवेद्य चढ़ाता है । क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । जब तक क्षुधा है , तब तक संसार है । वह भक्त कहता है - है । भगवान , आपने तो क्षुधा रोग को नष्ट कर दिया है . आप तो हमारी आत्मा का रस का निर्वाध रूप से पान कर रहे और मैं क्षुधा रोग से तषित होकर अगणित व्यंजन खाकर भी तृप्त नहीं हो रहा है , अत : नैवेद्य को त्यागकर आपके ही समान अमृत रस की प्राप्ति हो जिससे हमेशा के लिये क्षुधा नष्ट हो जाये । इसी भावों के साथ नैवेद्य चढ़ाना चाहिए ।
प्र . 10 नैवेद्य कैसे चढ़ाना चाहिए ?
उत्तर : एक छोटी प्लेट में नैवेद्य का प्रतीक नारियल की गिरी रखकर थाली में चढ़ाना चाहिए । का बादा भावन
प्र . 11 पूजन में दीपक ( दीप ) क्यों चढ़ाया जाता है ?
उत्तर : दीपक की दो विशेषतायें है - पहली स्व - पर प्रकाशक और दूसरी उसको लौ की ऊर्ध्वगति होती है । दीपक चढ़ाते समय यह भाव होना चाहिये कि वह अंधकार को नष्ट कर देता है । फिर ज्ञान रूपी दीप के प्रज्वलित होने से कितना मोह रूपी अन्धकार नष्ट होता होगा , वह वर्णनातीत है ।
प्र . 12 दीपक ( दीप ) कैसे चढ़ाया जाता है ?
उत्तर : छोटी प्लेट में कपूर प्रज्वलित कर अथवा जलता हुआ दीपक अथवा पीली चिटक को थाली में चढ़ाया जाता है ।
प्र . 13 पूजन में धूप कैसी एवं क्यों चढ़ाना चाहिए ?
उत्तर : भगवान की पूजन में शुद्ध धूप का प्रयोग करना चाहिये । बाजार की धूप को नहीं । हाथ से शुद्ध धूप को बनाकर प्रयोग करें या जो शद्ध है उसका प्रयोग करें । आज धूप का चढ़ाना भी चर्चा का विषय बन गया है । सोचते हैं , धूप का अग्नि में दहन किया जाता है जिससे हिंसा होती है । यह वे सोचते हैं जिसने धर्म को नहीं समझा , वे आगम पंथ को नहीं जानते । जिस प्रकार अग्नि में भी , हे जिनेन्द्र । आपने कर्म रूपी कालिमा को होम करके भस्म कर दिया है । यही ध्यानाग्नि मेरे अंदर भी प्रज्वलित हो जाये । जिससे में अपने अष्ट कर्मों की आहुति देकर आपके समान बन जाकै अर्थात् धूप आठ कर्मों की प्रतीक है , और अग्नि ध्यान का प्रतीक है । इसलिये पूजन में धूप चढ़ायी जाती है ।
प्र . 14 धूप कैसे चढ़ायी जाती है ?
उत्तरः अपने दायें हाथ की मध्यमा और अनामिका अँगुली से सहित धूप को अग्नि में जलाकर चढ़ाया जाता है अथवा लाँग को तोड़कर चला सकते हैं ।
प्र . 15 फल क्यों चढ़ाया जाता है
उत्तरा फल मोक्ष की प्राप्ति के लिये चढ़ाये जाते हैं । फल उत्तम हों तो उसका फल भी उत्तम मिलेगा । हम चाहते हैं मोक्ष रूपी फल लेकिन सड़े - खोखले बादाम तथा सुपारी जो वजन में कम हो , उसको चढ़ाते हैं । हमारी लोभी भावना ऐसी होती है , तभी तो सही फल नहीं मिल पाता । यदि हमारी भावना सस्ने पड़े फल चढ़ाने की रहेगी तो फल मोक्ष का नहीं मिलेगा । हमारा मन पवित्र होना चाहिए । पवित्र भावना से उत्तम फलों को चढ़ायें , तभी मोक्ष रूपी फल प्राप्त हो सकता है ।
प्र . 16 फल कैसे चढ़ाया जाता है ?
उत्तर : छोटी प्लेट में उत्तम फल रखकर दोनों हाथों से थाली में समर्पित किया जाता है । फल को हमेशा थाली व टेबिल पर सीधा चढ़ाना चाहिये अर्थात् फल का तोड़ा हुआ स्थान भगवान के तरफ होना चाहिए ।
प्र . 17 पूजन में अर्घ्य क्यों चढ़ाते हैं ?
उत्तरः सभी द्रव्यों का मिश्रण अर्ध्या कहलाता है - अनर्थ्य पद की प्राप्ति के लिये अर्घ्य चढ़ाया जाता है । अर्घ्य का अर्थ है - मूल्य - अनर्घ्य का अर्थ है अमूल्य । मूल्य से अमूल्य की प्राप्ति के लिये अर्घ्य चढ़ाते हैं और अर्घ्य को भरकर चढ़ाते हैं । पूर्ण प्राप्ति के लिये यानि अनर्घ्य पद अर्थात मोक्ष पद की प्राप्ति की भावना से अर्घ्य चढ़ाते हैं ।
प्र . 18 अर्घ्य कैसे चढ़ाया जाता हैं ?
उत्तर प्लेट में आठों द्रव्यों के मिश्रण अy को रखकर थाली में चढ़ाया जाता है
। प्र . 19 अर्घ्य , पूर्णार्ध , महार्ध में क्या अन्तर है ?
उत्तर : आर्य जल चंदनादि आप द्रव्य से पूजन करने के पश्चात् अष्ट द्रव्य को मिलाकर चढ़ाने को अर्घ्य कहते हैं । पूर्णाध -पूजा की समासि पर जयमाला के बाद जो अर्घ्य चढ़ाया जाता है वह पूणार्थ है ।
महार्थ - पूजन में जो आराध्य एवं पूजनीय क्षेत्र छूट गये हैं , उन सबका नाम स्मरण करके जो पूजन के समापन एवं शान्ति पाठ के पहले जो अर्घ्य चढ़ाया जाता है वह महाज़ हैं ।
प्र . 2० पूजा क्या है ?
उत्तरः पूजा हमारी दिन चयों का प्रथम मंगलाचरण है . पूजा आत्मशुद्धि का हेतु है , पूजा अन्धकार से प्रकाश की ओर की यात्रा है । पूजा पूज्य से साक्षात्कार करने का मार्ग है । वहाँ तक कि पूजा अन्तहीन प्रक्रिया है , जो कि मुक्ति तक चलती है अर्थात परंपरा से मोक्ष का कारण है ।
पूजा ( पूज् - अ - टाप )
पून आराधना करना , पूजा करना , अर्चना करना , स्वागत - सम्मान करना ।
" पू " - धातु का अर्थ है - अर्चन करना ।
पू - पवित्र होना , पवित्र करना ।
पूज्य के माध्यम से पूजकको पवित्र / पावन करना , प्रक्षालित करना ।
पू - मांजना , साफकरना ।
पूज्य के माध्यम से स्वयं के विकारी परिणामों भावों को निर्मल करना , जिनेन्द्रवाणी द्वारा कर्ममल को निष्कासित करना , परिमार्जित करना अर्थात् विकारों को हटाना ।
पू - फटकारना ।
त्याग और संयम के सूप द्वारा व्यर्थ - पदार्थों को फटकारना एवं सारतत्त्व को साफकरके ग्रहण करना । पूजा के और भी पर्यायवाची नाम हैं , जिनका अलग - अलग स्थानों पर प्रयोग करते हैं । याग , यज्ञ , कृत , पूजा , सपर्या , इज्या . अध्वर , मख , मह , सेवा , कल्प , उपासना आदि । पाप क्रियाओं का त्याग करके , परिग्रह को निषिद्ध करके , विकल्प रहित निर्मल भावों से पूज्य की आराधना में मन , वचन और काय पूर्वक समर्पित होना पूजा है ।